कर्मयोग~ भगवत गीता ~ अध्याय तीन - Karmyog Bhagwat Geeta Chapter 3

अथ तृतीयोऽध्यायः- कर्मयोग   ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की आवश्यकता अर्जुन उवाच ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बु...


अथ तृतीयोऽध्यायः- कर्मयोग

 

ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की आवश्यकता



अर्जुन उवाच
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन ।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥

arjuna uvāca
jyāyasī cētkarmaṇastē matā buddhirjanārdana.
tatkiṅ karmaṇi ghōrē māṅ niyōjayasi kēśava৷৷3.1৷৷
भावार्थ : अर्जुन बोले- हे जनार्दन! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं?॥1॥

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्‌ ॥

vyāmiśrēṇēva vākyēna buddhiṅ mōhayasīva mē.
tadēkaṅ vada niśicatya yēna śrēyō.hamāpnuyām৷৷3.2৷৷
भावार्थ : आप मिले हुए-से वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं। इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ॥2॥

श्रीभगवानुवाच
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्‍ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्‌ ॥
śrī bhagavānuvāca
lōkē.smindvividhā niṣṭhā purā prōktā mayānagha.
jñānayōgēna sāṅkhyānāṅ karmayōgēna yōginām৷৷3.3৷৷
भावार्थ :  श्रीभगवान बोले- हे निष्पाप! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा (साधन की परिपक्व अवस्था अर्थात पराकाष्ठा का नाम 'निष्ठा' है।) मेरे द्वारा पहले कही गई है। उनमें से सांख्य योगियों की निष्ठा तो ज्ञान योग से (माया से उत्पन्न हुए सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरतते हैं, ऐसे समझकर तथा मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान से रहित होकर सर्वव्यापी सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहने का नाम 'ज्ञान योग' है, इसी को 'संन्यास', 'सांख्ययोग' आदि नामों से कहा गया है।) और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से (फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदाज्ञानुसार केवल भगवदर्थ समत्व बुद्धि से कर्म करने का नाम 'निष्काम कर्मयोग' है, इसी को 'समत्वयोग', 'बुद्धियोग', 'कर्मयोग', 'तदर्थकर्म', 'मदर्थकर्म', 'मत्कर्म' आदि नामों से कहा गया है।) होती है॥3॥
न कर्मणामनारंभान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥
na karmaṇāmanārambhānnaiṣkarmyaṅ puruṣō.śnutē.
na ca saṅnyasanādēva siddhiṅ samadhigacchati৷৷3.4৷৷
भावार्थ : मनुष्य न तो कर्मों का आरंभ किए बिना निष्कर्मता (जिस अवस्था को प्राप्त हुए पुरुष के कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात फल उत्पन्न नहीं कर सकते, उस अवस्था का नाम 'निष्कर्मता' है।) को यानी योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानी सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है॥4॥
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्‌ ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥
na hi kaśicatkṣaṇamapi jātu tiṣṭhatyakarmakṛt.
kāryatē hyavaśaḥ karma sarvaḥ prakṛtijairguṇaiḥ৷৷3.5৷৷
भावार्थ : निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है॥5॥
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्‌ ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥
karmēndriyāṇi saṅyamya ya āstē manasā smaran.
indriyārthānvimūḍhātmā mithyācāraḥ sa ucyatē৷৷3.6৷৷
भावार्थ : जो मूढ़ बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात दम्भी कहा जाता है॥6॥
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥
yastvindriyāṇi manasā niyamyārabhatē.rjuna.
karmēndriyaiḥ karmayōgamasaktaḥ sa viśiṣyatē৷৷3.7৷৷
भावार्थ : किन्तु हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है॥7॥
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः ॥
niyataṅ kuru karma tvaṅ karma jyāyō hyakarmaṇaḥ.
śarīrayātrāpi ca tē na prasiddhyēdakarmaṇaḥ৷৷3.8৷৷
भावार्थ :  तू शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म कर क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा॥8॥

यज्ञादि कर्मों की आवश्यकता तथा यज्ञ की महिमा का वर्णन


यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः ।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ॥
yajñārthātkarmaṇō.nyatra lōkō.yaṅ karmabandhanaḥ.
tadarthaṅ karma kauntēya muktasaṅgaḥ samācara৷৷3.9৷৷
भावार्थ : यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मुनष्य समुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिए हे अर्जुन! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्य कर्म कर॥9॥
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाचप्रजापतिः ।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्‌ ॥
sahayajñāḥ prajāḥ sṛṣṭvā purōvāca prajāpatiḥ.
anēna prasaviṣyadhvamēṣa vō.stviṣṭakāmadhuk৷৷3.10৷৷
भावार्थ : प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो॥10॥
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥
dēvānbhāvayatānēna tē dēvā bhāvayantu vaḥ.
parasparaṅ bhāvayantaḥ śrēyaḥ paramavāpsyatha৷৷3.11৷৷
भावार्थ :  तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्नत करें। इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे॥11॥
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः ॥
iṣṭānbhōgānhi vō dēvā dāsyantē yajñabhāvitāḥ.
tairdattānapradāyaibhyō yō bhuṅktē stēna ēva saḥ৷৷3.12৷৷
भावार्थ : यज्ञ द्वारा बढ़ाए हुए देवता तुम लोगों को बिना माँगे ही इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओं द्वारा दिए हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिए स्वयं भोगता है, वह चोर ही है॥12॥
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्‌ ॥
yajñaśiṣṭāśinaḥ santō mucyantē sarvakilbiṣaiḥ.
bhuñjatē tē tvaghaṅ pāpā yē pacantyātmakāraṇāt৷৷3.13৷৷
भावार्थ : यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो पापी लोग अपना शरीर-पोषण करने के लिए ही अन्न पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं॥13॥
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥
annādbhavanti bhūtāni parjanyādannasambhavaḥ.
yajñādbhavati parjanyō yajñaḥ karmasamudbhavaḥ৷৷3.14৷৷
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्‌ ।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्‌ ॥
karma brahmōdbhavaṅ viddhi brahmākṣarasamudbhavam.
tasmātsarvagataṅ brahma nityaṅ yajñē pratiṣṭhitam৷৷3.15৷৷
भावार्थ : सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है, वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होने वाला है। कर्मसमुदाय को तू वेद से उत्पन्न और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है॥14-15॥
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥
ēvaṅ pravartitaṅ cakraṅ nānuvartayatīha yaḥ.
aghāyurindriyārāmō mōghaṅ pārtha sa jīvati৷৷3.16৷৷
भावार्थ : हे पार्थ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार परम्परा से प्रचलित सृष्टिचक्र के अनुकूल नहीं बरतता अर्थात अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह इन्द्रियों द्वारा भोगों में रमण करने वाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है॥16॥
ज्ञानवान और भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता


यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥
yastvātmaratirēva syādātmatṛptaśca mānavaḥ.
ātmanyēva ca santuṣṭastasya kāryaṅ na vidyatē৷৷3.17৷৷
भावार्थ : परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट हो, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है॥17॥

संजय उवाच:
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥
naiva tasya kṛtēnārthō nākṛtēnēha kaścana.
na cāsya sarvabhūtēṣu kaśicadarthavyapāśrayaḥ৷৷3.18৷৷
भावार्थ : उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता॥18॥
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः ॥
tasmādasaktaḥ satataṅ kāryaṅ karma samācara.
asaktō hyācarankarma paramāpnōti pūruṣaḥ৷৷3.19৷৷
भावार्थ :  इसलिए तू निरन्तर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्यकर्म को भलीभाँति करता रह क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है॥19॥
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥
karmaṇaiva hi saṅsiddhimāsthitā janakādayaḥ.
lōkasaṅgrahamēvāpi saṅpaśyankartumarhasi৷৷3.20৷৷
भावार्थ : जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे, इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने के ही योग्य है अर्थात तुझे कर्म करना ही उचित है॥20॥
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥
yadyadācarati śrēṣṭhastattadēvētarō janaḥ.
sa yatpramāṇaṅ kurutē lōkastadanuvartatē৷৷3.21৷৷
भावार्थ : श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है (यहाँ क्रिया में एकवचन है, परन्तु 'लोक' शब्द समुदायवाचक होने से भाषा में बहुवचन की क्रिया लिखी गई है।)॥21॥
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन ।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥
na mē pārthāsti kartavyaṅ triṣu lōkēṣu kiñcana.
nānavāptamavāptavyaṅ varta ēva ca karmaṇi৷৷3.22৷৷
भावार्थ : हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ॥22॥
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥
yadi hyahaṅ na vartēyaṅ jātu karmaṇyatandritaḥ.
mama vartmānuvartantē manuṣyāḥ pārtha sarvaśaḥ৷৷3.23৷৷
भावार्थ : क्योंकि हे पार्थ! यदि कदाचित्‌ मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाए क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं॥23॥
यदि उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्‌ ।
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥
utsīdēyurimē lōkā na kuryāṅ karma cēdaham.`
saṅkarasya ca kartā syāmupahanyāmimāḥ prajāḥ৷৷3.24৷৷
भावार्थ : इसलिए यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जाएँ और मैं संकरता का करने वाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ॥24॥


अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा


सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्‌ ॥
saktāḥ karmaṇyavidvāṅsō yathā kurvanti bhārata.
kuryādvidvāṅstathāsaktaśicakīrṣurlōkasaṅgraham৷৷3.25৷৷
भावार्थ : हे भारत! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्तिरहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे॥25॥
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङि्गनाम्‌ ।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्‌ ॥
na buddhibhēdaṅ janayēdajñānāṅ karmasaṅginām.
jōṣayētsarvakarmāṇi vidvān yuktaḥ samācaran৷৷3.26৷৷
भावार्थ : परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह शास्त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे, किन्तु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवाए॥26॥
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥
prakṛtēḥ kriyamāṇāni guṇaiḥ karmāṇi sarvaśaḥ.
ahaṅkāravimūḍhātmā kartā.hamiti manyatē৷৷3.27৷৷
भावार्थ : वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं, तो भी जिसका अन्तःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मानता है॥27॥
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥
tattvavittu mahābāhō guṇakarmavibhāgayōḥ.
guṇā guṇēṣu vartanta iti matvā na sajjatē৷৷3.28৷৷
भावार्थ : परन्तु हे महाबाहो! गुण विभाग और कर्म विभाग (त्रिगुणात्मक माया के कार्यरूप पाँच महाभूत और मन, बुद्धि, अहंकार तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और शब्दादि पाँच विषय- इन सबके समुदाय का नाम 'गुण विभाग' है और इनकी परस्पर की चेष्टाओं का नाम 'कर्म विभाग' है।) के तत्व (उपर्युक्त 'गुण विभाग' और 'कर्म विभाग' से आत्मा को पृथक अर्थात्‌ निर्लेप जानना ही इनका तत्व जानना है।) को जानने वाला ज्ञान योगी सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता। ॥28॥
प्रकृतेर्गुणसम्मूढ़ाः सज्जन्ते गुणकर्मसु ।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्‌ ॥
prakṛtērguṇasammūḍhāḥ sajjantē guṇakarmasu.
tānakṛtsnavidō mandānkṛtsnavinna vicālayēt৷৷3.29৷৷
भावार्थ : प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी विचलित न करे॥29॥
मयि सर्वाणि कर्माणि सन्नयस्याध्यात्मचेतसा ।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥
mayi sarvāṇi karmāṇi saṅnyasyādhyātmacētasā.
nirāśīrnirmamō bhūtvā yudhyasva vigatajvaraḥ৷৷3.30৷৷
भावार्थ : मुझ अन्तर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और सन्तापरहित होकर युद्ध कर॥30॥
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः ।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽति कर्मभिः ॥
yē mē matamidaṅ nityamanutiṣṭhanti mānavāḥ.
śraddhāvantō.nasūyantō mucyantē tē.pi karmabhiḥ৷৷3.31৷৷
भावार्थ : जो कोई मनुष्य दोषदृष्टि से रहित और श्रद्धायुक्त होकर मेरे इस मत का सदा अनुसरण करते हैं, वे भी सम्पूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं॥31॥
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्‌ ।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥
yē tvētadabhyasūyantō nānutiṣṭhanti mē matam.
sarvajñānavimūḍhāṅstānviddhi naṣṭānacētasaḥ৷৷3.32৷৷
भावार्थ : परन्तु जो मनुष्य मुझमें दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं, उन मूर्खों को तू सम्पूर्ण ज्ञानों में मोहित और नष्ट हुए ही समझ॥32॥
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥
sadṛśaṅ cēṣṭatē svasyāḥ prakṛtērjñānavānapi.
prakṛtiṅ yānti bhūtāni nigrahaḥ kiṅ kariṣyati৷৷3.33৷৷
भावार्थ : सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं। ज्ञानवान्‌ भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा॥33॥
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥
indriyasyēndriyasyārthē rāgadvēṣau vyavasthitau.
tayōrna vaśamāgacchēttau hyasya paripanthinau৷৷3.34৷৷
भावार्थ : इन्द्रिय-इन्द्रिय के अर्थ में अर्थात प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान्‌ शत्रु हैं॥34॥
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌ ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥
śrēyānsvadharmō viguṇaḥ paradharmātsvanuṣṭhitāt.
svadharmē nidhanaṅ śrēyaḥ paradharmō bhayāvahaḥ৷৷3.35৷৷
भावार्थ : अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है॥35॥


पाप के कारणभूत कामरूपी शत्रु को नष्ट करने का उपदेश


अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥
arjuna uvāca
atha kēna prayuktō.yaṅ pāpaṅ carati pūruṣaḥ.
anicchannapi vārṣṇēya balādiva niyōjitaḥ৷৷3.36৷৷
भावार्थ : अर्जुन बोले- हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात्‌ लगाए हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है॥36॥

श्रीभगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्‌ ॥
śrī bhagavānuvāca
kāma ēṣa krōdha ēṣa rajōguṇasamudbhavaḥ.
mahāśanō mahāpāpmā viddhyēnamiha vairiṇam৷৷3.37৷৷
भावार्थ : श्री भगवान बोले- रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है। यह बहुत खाने वाला अर्थात भोगों से कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है। इसको ही तू इस विषय में वैरी जान॥37॥
धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्‌ ॥
dhūmēnāvriyatē vahniryathā৷৷darśō malēna ca.
yathōlbēnāvṛtō garbhastathā tēnēdamāvṛtam৷৷3.38৷৷
भावार्थ : जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और मैल से दर्पण ढँका जाता है तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढँका रहता है, वैसे ही उस काम द्वारा यह ज्ञान ढँका रहता है॥38॥
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥
āvṛtaṅ jñānamētēna jñāninō nityavairiṇā.
kāmarūpēṇa kauntēya duṣpūrēṇānalēna ca৷৷3.39৷৷
भावार्थ : और हे अर्जुन! इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने वाले काम रूप ज्ञानियों के नित्य वैरी द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढँका हुआ है॥39॥
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्‌ ॥
indriyāṇi manō buddhirasyādhiṣṭhānamucyatē.
ētairvimōhayatyēṣa jñānamāvṛtya dēhinam৷৷3.40৷৷
भावार्थ : इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि- ये सब इसके वासस्थान कहे जाते हैं। यह काम इन मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है। ॥40॥
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्‌ ॥
tasmāttvamindriyāṇyādau niyamya bharatarṣabha.
pāpmānaṅ prajahi hyēnaṅ jñānavijñānanāśanam৷৷3.41৷৷
भावार्थ : इसलिए हे अर्जुन! तू पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल॥41॥
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥
indriyāṇi parāṇyāhurindriyēbhyaḥ paraṅ manaḥ.
manasastu parā buddhiryō buddhēḥ paratastu saḥ৷৷3.42৷৷
भावार्थ : इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर यानी श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म कहते हैं। इन इन्द्रियों से पर मन है, मन से भी पर बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है॥42॥
एवं बुद्धेः परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्‌ ॥
ēvaṅ buddhēḥ paraṅ buddhvā saṅstabhyātmānamātmanā.
jahi śatruṅ mahābāhō kāmarūpaṅ durāsadam৷৷3.43৷৷
भावार्थ : इस प्रकार बुद्धि से पर अर्थात सूक्ष्म, बलवान और अत्यन्त श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल॥43॥

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे 
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः ॥3॥
नाम

10th,2,12th,3,12th result,1,अक्षरब्रह्मयोग ~ अध्याय आठ ~ AksharBrahmaYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 8,1,अम्बे जी की आरती,1,अर्जुनविषादयोग ~ भगवत गीता ~ अध्याय एक - Bhagwat Geeta Chapter 1,1,अष्टलक्ष्मी स्तोत्रम्,1,आज के इतिहास (History Today),366,आत्मसंयमयोग ~ अध्याय छः ~ AtmSanyamYog Bhagwat Geeta Chapter 6,1,आरती कुंज बिहारी की,1,आरती चालीसा,50,ईसाई धर्म,1,ऑनलाइन इनकम,14,करियर,10,कर्मयोग~ भगवत गीता ~ अध्याय तीन - Karmyog Bhagwat Geeta Chapter 3,1,कर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय पाँच ~ KarmSanyasYog Bhagwat,1,कहानियाँ,5,कानून,2,कीर्ति खरबंदा,1,क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग ~ अध्याय तेरह ~ Ksetra-Ksetrajnay Vibhag Yog ~ Bhagwat Geeta Chapter 13,1,खान-पान,231,गणेश पञ्चरत्नं,1,गीता,19,गुणत्रयविभागयोग ~ अध्याय चौदह ~ GunTrayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 14,1,गुरुनानक गुरुजी के द्वारा हमे दी गयी शिक्षाएं,1,चुनाव,3,जगदीश जी की आरती,1,जीवन बीमा प्रश्नोत्तरी,2,जीवनी,2,ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार ~ GyanKarmSanyasYog Bhagwat Geeta Chapter 4,1,ज्ञानविज्ञानयोग ~ अध्याय सात ~ GnyanVignyanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 7,1,झांवी कॉमिक्स,12,टेक ज्ञान,1,त्योहार,1,देश,2,देश-विदेश,3,दैवासुरसम्पद्विभागयोग ~ अध्याय सोलह ~ DaiwaSurSampdwiBhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 16,1,धर्म,2,नौकरी,15,न्यूज़,2,पढ़ाई,4,पुरुषो के लिए,1,पुरुषोत्तमयोग ~ अध्याय पंद्रह ~ PurushottamYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 15,1,पूर्णिमा व्रत कथा,1,पौधे रोपण-खेतीबाड़ी,19,प्रश्नोत्तरी,12,फैशन,52,बच्चो के लिए,2,बच्चों के लिए,28,बागवानी,19,बिज़नस,1,बिजनेस फाइनेंस,21,बुद्ध धर्म,1,बैंक,1,बॉलीवुड,263,ब्लॉग,226,भक्तियोग ~ अध्याय बारह ~ BhaktiYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 12,1,भगवत गीता,19,भगवत भगवान की आरती,1,भजन कीर्तन,44,भारतीय लोकतंत्र,2,भैरव जी की आरती,1,मज़ाक,1,मुस्लिम धर्म,3,मोक्षसंन्यासयोग ~ अध्याय अट्ठारह ~ MokshSanyasYog~ Bhagwat Geeta Chapter 18,1,योग,1,राजविद्याराजगुह्ययोग ~ अध्याय नौ ~ RajVidyaRajGuhyaYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 9,1,रामायण,1,राशि उपाय,57,राशिफल 2017,1,लव लाइफ,3,लव स्टोरी,1,लिङ्गाष्टकम् स्तोत्रम्,1,लेखांकन,1,वास्तु शास्र,6,विडियो,1,विभूतियोग ~ अध्याय दस ~ VibhutiYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 10,1,विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह ~ Vishwa Roop Darshan Yog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11,1,वीडियो,4,वैज्ञानिक,1,व्यंजन रेसिपी,130,व्रत कथा,8,व्रत विधि व आरती,2,शाकम्भरी माता चालीसा,1,शिरडी साई बाबा चालीसा,1,शिरडी साई बाबा धूप आरती,1,शिव चालीसा,1,शिव जी की आरती,1,शेयर बाजार,1,श्रद्धात्रयविभागयोग ~ अध्याय सत्रह ~ Shraddha Tray Vibhag Yog ~ Bhagwat Geeta Chapter 17,1,श्री अन्नपूर्णा चालीसा,1,श्री अन्नपूर्णा माता की आरती,1,श्री काली माता की आरती,1,श्री काली माता चालीसा,1,श्री कृष्ण चालीसा,1,श्री गंगा चालीसा,1,श्री गंगा माता आरती,1,श्री गणेश चालीसा,1,श्री गणेश जी की आरती,1,श्री गायत्री चालीसा,1,श्री गायत्री माता की आरती,1,श्री चिंतपूर्णी देवी की आरती,1,श्री जीण चालीसा,1,श्री जीण माता की आरती,1,श्री दुर्गा चालीसा,1,श्री नवग्रह आरती,1,श्री नवग्रह चालीसा,1,श्री परशुराम चालीसा,1,श्री भैरव चालीसा,1,श्री मंगलवार व्रत कथा व्रत विधि व आरती,1,श्री रघुवर जी की आरती,1,श्री रविवार व्रत कथा,1,श्री राधाकृष्ण की आरती,1,श्री राम चालीसा,1,श्री रामचन्द्र जी की आरती,1,श्री लक्ष्मी माता की आरती,1,श्री लक्ष्मी माता चालीसा,1,श्री ललिता माता की आरती,1,श्री ललिता माता चालीसा,1,श्री विश्वकर्मा जी की आरती,1,श्री विश्वकर्मा जी चालीसा,1,श्री विष्णुशतनामस्तोत्रम्,1,श्री वीरभद्र चालीसा,1,श्री शनि देव चालीसा,1,श्री शनि देव जी की आरती,1,श्री सत्य नारायण व्रत कथा,1,श्री सन्तोषी माता की आरती,1,श्री सन्तोषी माता चालीसा,1,श्री सरस्वती चालीसा,1,श्री सरस्वती माता की आरती,1,श्री सोमवार व्रत कथा,1,श्री सोलह सोमवार व्रत कथा,1,श्रीराम रक्षा स्तोत्रम्,1,श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्‌,1,संकटनाशक गणेश स्तोत्र : प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुत्र विनायकम्,1,संस्कृत,1,सन्तान सप्तमी व्रत कथा,1,समाचार,36,समाचार चैनल LIVE,6,सांख्ययोग ~ भगवत गीता ~ द्वितीय दो - Bhagwat Geeta Chapter 2,1,साई बाबा की आरती,1,सामान्य ज्ञान,3,सालासर बालाजी की आरती,1,सिख धर्म,4,सोम प्रदोष व्रत कथा,1,स्तोत्र,7,हनुमान जी की आरती व चालीसा,1,हिन्दी सीखें,32,हिन्दू धर्म,70,हेल्थकेयर,10,हैल्थकेयर,363,Adjustment (समायोजन),21,Advance Tech (हिंदी में),5,age in banking,1,Armpits,1,Bank Reconciliation Statement (बैंक समाधान विवरण),11,banking for general class,1,Bhajan Kirtan,44,Bills of Exchange (विनिमय विपत्र),11,Business Studies (व्यवसाय),14,career,1,career development,1,Cash Book (रोकड़ बही),8,Company (कम्पनी),2,Depreciation (ह्रास),8,Diana Penty,1,Diana Penty bollywood,1,Diana Penty Desi Beuty,1,Diana Penty- desi daru,1,education,1,education in india,1,education standards,1,Entrepreneurship (उद्यमिता),26,Entrepreneurship (उद्यमिता),4,exam,1,exams.in.net,1,fail,1,Final Account (अंतिम लेखा लेखांकन),28,Finance (वित्त),2,general,1,Government Exam Practice Papers,2,GOVERNMENT EXAM PRACTICE PAPERS ANSWERS,1,govt jobs,1,indian god bhajans,44,Journal (रोजनामचा),16,Ketika Sharma Bollywood,1,Ledger (बही-खाता),11,Links,11,Management (प्रबन्ध),15,Offers,1,padai,1,poor education,1,Practice Test of IRDA (ic33 & ic 38),2,Quran,1,Rakul preet,9,Rakul Preet Beautiful Pics,1,Rectification of Errors (अशुद्धियों के सुधार),4,Rhea Chakarborty,1,sexy rakul preet,1,student life,1,Top Bhajans of all time,44,Trial Balance (संतुलन परीक्षण),9,
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हिन्दी मेन - Hindi.Men: कर्मयोग~ भगवत गीता ~ अध्याय तीन - Karmyog Bhagwat Geeta Chapter 3
कर्मयोग~ भगवत गीता ~ अध्याय तीन - Karmyog Bhagwat Geeta Chapter 3
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