रस Ras in Hindi Grammar प्राचीन भारतीय साहित्य में रस का महत्वपूर्ण स्थान है।रस - संचार के बिना कोई भी प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता है।र...
रस Ras in Hindi Grammar
प्राचीन भारतीय साहित्य में रस का महत्वपूर्ण स्थान है।रस - संचार के बिना कोई भी प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता है।रस एक प्रकार का विशेष आनंद है जो कविता के पठन ,श्रवण अथवा नाटक के अभिनय देखने से दर्शक या पाठक को प्राप्त होता है।
जिस प्रकार अनेक व्यजंनों ,औषधियों और द्रव्यों से युक्त होने पर भोजन में एक विशेष स्वाद का अनुभव करते हैं।उसी प्रकार रसिक जन ,अनेक भावों के अभिनय से युक्त स्थायी भावों का आश्वादन करते हैं। यही नाटक की रसानुभुक्ति है।
नाना भावों से संयुक्त होने पर स्थायी सामान्य नहीं,वरन विशेष मानसिक आनंद को प्रदान करते हैं। भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में रस के बारे में निम्न लिखा है -
"तत्र रसानेव तावदादावभिव्याख्यास्यामः । न हि रसादृते कश्चिदर्थः प्रवर्तते ।
तत्रविभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः।कोदृष्टान्तः।अत्रा-यथाहि नानाव्यञ्जनौषधिद्रव्यसंयोगाद्रसनिष्पत्तिःतथानानाभावोपगमाद्रसनिष्पत्तिः।यथाहि- गुडादिभिर्द्रव्यैर्व्यञ्जनैरौषधिभिश्च षाडवादयो रसा निर्वर्त्यन्ते तथा नानाभावोपगता अपि स्थायिनो भावा रसत्वमाप्नुवन्तीति ।अत्राह - रस इति कः पदार्थः । उच्यते - आस्वाद्यत्वात् ।
कथमास्वाद्यते रसः ।यथा हि नानाव्यञ्जनसंस्कृतमन्नं भुञ्जान रसानास्वादयन्ति सुमनसः पुरुष हर्षादींश्चाधिगच्छन्ति तथा नानाभावाभिनयव्यञ्जितान् वागङ्गसत्तोपेतान्स्था। यिभावानास्वादयन्ति सुमनसः प्रेक्षकाः हर्षादींश्चाधिगच्छन्ति । तस्मान्नाट्यरसा इत्यभिव्याख्याताः।"
नाटक में भरत मुनि के अनुसार रसों की संख्या आठ ही मानी गयी है।यद्यपि काव्य में नौ ,दस और ग्यारह तक रसों की संख्या विद्वानों द्वारा मानी गयी है।जिसमें श्रृंगार ,हास्य ,रौद्र ,करुण ,वीर ,अद्भुत ,वीभत्स, भयानक और शांत रस को उत्पत्ति मानी गयी है।
रस के भेद / प्रकार -
रस नौ प्रकार के हैं -
- श्रृंगार
- हास्य
- रौद्र
- करुण
- वीर
- भक्ति
- वीभत्स
- भयानक
- शांत
रस के चार अंग है -
- विभाव ,
- अनुभाव ,
- संचारी भाव और
- स्थायीभाव आदि।
विभाव -
विशेष रूप से जो भावों को प्रकट करते हैं ,वे विभाव हैं।ये कारण रूप होते हैं।स्थायी भाव के प्रकट होने का जो मुख्य कारण होता है ,उसे आलम्बन विभाव कहते हैं।इसका आलम्बन ग्रहण करके ही रस की स्थिति होती हैं। प्रकट हुए स्थायीभाव को और अधिक प्रबुद्ध ,उदीप्त और उत्तेजित करने वाले कारणों को उद्दीपन - विभाव कहते हैं।
संचारीभाव -
जो स्थायीभाव के साथ - साथ संचरण करते हैं उन्हें संचारिभाव कहते हैं।इनके द्वारा स्थायीभाव की स्थिति भाव की पुष्टि होती हैं।एक रास के स्थायीभाव के साथ अनेक संचारीभाव आते हैं।इन्हे व्यभिचारीभाव भी कहते हैं ,क्योंकि एक संचारी किसी एक स्थायी भाव या रास के साथ नहीं रहता हैं ,वरन अनेक रसों में देखा जा सकता है जो उसका व्यभिचरण है।जैसे - शंका वियोग श्रृंगार में आती है ,करुण में भी और भयानक में भी। एक संचारी का कोई भी एक स्थायी या रस से सम्बन्ध नहीं ,अतः उसे व्यभिचारी कहा गया है।
अनुभाव -
वाणी और अंगों के अभिनय द्वारा जिनसे अर्थ प्रकट हो ,वे अनुभाव हैं।अनुभावों की कोई निश्चित संख्या नहीं हैं। परन्तु आठ अनुभाव जो सहज है और सात्विक विकारों के रूप में आते हैं ,उन्हें सात्विकभाव कहा जाता है।ये अनायास सहजरूप से प्रकट होते हैं।क्रोध स्थायीभाव को प्रकट करने के लिए मुँह का लाल हो जाना ,दाँत पीसना ,शरीर का काँपना आदि अनुभावों के अन्तर्गत है।
स्थायीभाव -
वे मुख्य भाव है जो रसत्व को प्राप्त हो सकते हैं।रसरूप में जिनकी परिणति हो सकती हैं वे स्थायी हैं।अन्य भाव क्षणस्थायी है ,जो ३३ संचारी माने गए हैं उनकी स्थिति अधिक देर तक नहीं रहती है ,परन्तु स्थाईभावों की स्थिति काफी हद तक स्थायी रहती हैं।भरतमुनि का मानना था कि जैसे नाक ,कान ,मुँह आदि सब मनुष्यों में समान हुए उनमें से एक ही राजा होता है ,उसी प्रकार इन सबमें आठ की रस की स्थिति प्राप्त हो सकते हैं।अतः जो भी भाव प्रबल और देर तक रहने, वे सभी रसत्व की स्थिति प्राप्त कर सकते हैं।
रस के भेद / प्रकार -
आचार्यों के अनुसार रस के नौ भेद होते हैं -
१. श्रृंगार रस - नायक - नायिका के प्रेम को दिखाने के लिए श्रृंगार रस का प्रयोग किया जाता हैं .यह मुख्य रूप से युगल प्रेम को दर्शाता है . यह संसार के सभी प्राणियों में व्याप्त है .इसी कारण इसे रसराज की भी संज्ञा दी गयी हैं .
२. करुण रस - प्रिय जनों या वस्तुओं के आहत होने .हानि आदि भावों को करुण रस प्रकट करता हैं . इससे ह्रदय शोक से भर जाता है .
३. वीर रस - वीर रस द्वारा ह्रदय में उत्साह प्रकट होता है . इसमें विभावों ,अनुभावों और संचारी भावों की सहायता से उत्साह स्थायी रूप से आरम्भ होता हैं .
४. शांत रस - शांत रस द्वारा सांसारिक भवबाधा से मुक्ति ,वैराग्य का बोध होता हैं .इसमें विरक्ति का भाव रहता हैं .
५. हास्य रस - जब किसी विलक्षण वस्तु ,विचित्र आकृति व बातों द्वारा कथन में हास्य पैदा किया जाता हैं तो वह रस होता हैं .
६. रौद्र रस - जब विरोधी पक्ष के प्रति क्रोध उत्पन्न होता हैं ,तो वह रौद्र रस का रूप धारण कर लेता हैं .
७. भयानक रस - जहाँ भय स्थायी रूप से विकसित हो और पाठक में ह्रदय में भय छा जाए ,वहां भयानक रस पल्लवित होता हैं .
८. बीभत्स रस - जब किसी वस्तु या दृश्य के प्रति घृणा का भाव पैदा हो तो वह बीभत्स रस होता हैं .
९ . भक्ति रस - भक्ति रस में ईश्वर के प्रति प्रेम और निष्ठां को दर्शाया जाता हैं ,जिससे पाठक के मन में ईश्वर के प्रति प्रेम पनपता है .
१. श्रृंगार रस - नायक - नायिका के प्रेम को दिखाने के लिए श्रृंगार रस का प्रयोग किया जाता हैं .यह मुख्य रूप से युगल प्रेम को दर्शाता है . यह संसार के सभी प्राणियों में व्याप्त है .इसी कारण इसे रसराज की भी संज्ञा दी गयी हैं .
२. करुण रस - प्रिय जनों या वस्तुओं के आहत होने .हानि आदि भावों को करुण रस प्रकट करता हैं . इससे ह्रदय शोक से भर जाता है .
३. वीर रस - वीर रस द्वारा ह्रदय में उत्साह प्रकट होता है . इसमें विभावों ,अनुभावों और संचारी भावों की सहायता से उत्साह स्थायी रूप से आरम्भ होता हैं .
४. शांत रस - शांत रस द्वारा सांसारिक भवबाधा से मुक्ति ,वैराग्य का बोध होता हैं .इसमें विरक्ति का भाव रहता हैं .
५. हास्य रस - जब किसी विलक्षण वस्तु ,विचित्र आकृति व बातों द्वारा कथन में हास्य पैदा किया जाता हैं तो वह रस होता हैं .
६. रौद्र रस - जब विरोधी पक्ष के प्रति क्रोध उत्पन्न होता हैं ,तो वह रौद्र रस का रूप धारण कर लेता हैं .
७. भयानक रस - जहाँ भय स्थायी रूप से विकसित हो और पाठक में ह्रदय में भय छा जाए ,वहां भयानक रस पल्लवित होता हैं .
८. बीभत्स रस - जब किसी वस्तु या दृश्य के प्रति घृणा का भाव पैदा हो तो वह बीभत्स रस होता हैं .
९ . भक्ति रस - भक्ति रस में ईश्वर के प्रति प्रेम और निष्ठां को दर्शाया जाता हैं ,जिससे पाठक के मन में ईश्वर के प्रति प्रेम पनपता है .